Saturday, July 24, 2010

बिग बुल और बरगद के पेड की जड़ों का रहस्य










 हमारे एक मित्र ने पूछा,
यार ये बिग बुल, बिग बुल क्या था ?
हमने कहा यार
ये बिग बुल, बिग बुल ,बहुत बिग था,
बरगद के पेड़ की तरह
जिसकी कुछ जड़ें
नीचे से ऊपर की तरफ जाती थी,
कुछ जड़ें
ऊपर से नीचे की तरफ आती थी ,
कौन सी जड़ किससे मिली थी
इसी खोज मे,
सी बी आई बहुत दिनों तक पड़ी थी ,
जड़ें आपस में इतनी मिली थी ,
उन्हें कोई निकाल नहीं पाया,
बिग बुल का सच क्या था,
कोई जान नहीं पाया
बरगद का पेड़ 63 साल का जवान है,
और दिल्ली में मजबूती से विराजमान है,
सी.बी.आई तो क्या कोलम्बस भी नहीं खोज पाएगा,
बिग बुल बरगद की जड़े इतनी धुमावदार हैं
खोजने वाला धूम धूम कर मर जाएगा
बिग बुल और बरगद के पेड की जड़ों का रहस्य
कोई नही जान पाएगा।

Thursday, July 15, 2010

हम मदारियों के देश में रहते हैं.........


हाँ, हम मदारियों के देश में रहते हैं.
रोज मदारी आता है डुगडुगी बजाता है,
गरीबी दूर करने के ताबीज बेचता है,
कितनी कसमें खाता, कितनी खिलाता है।

खेल दिखाते-दिखाते जादू की छड़ी घुमाएगा,
देखो, आदमियों का पूरा भीड़ ताली बजायेगा
हाँ भाईजान, हाँ कदरदान, देखो श्रीमान,
उसको जादू वाली राजनीति का पूरा खेल आता है,
कभी किसी को गिराता है,
कभी किसी को मिलाता है,
मदारी हवा का रुख पहचानता है,
हर एक की नब्ज जानता है,
देखो जादू से हाथ के पंजे को घड़ी बनाएगा,
हल में से कमल खिलाएगा है,
कमल से हल का पहिया बनाएगा,
तीर कमान बना सबको डराएगा,
साइकिल को हाथी, हाथी को लालटेन,
वह कुछ भी बना सकता है।

वो नया खेल बना रहा है
किसान दशक ला रहा है,
लाल किले पर खड़ा होकर तमाशा दिखाएगा,
देखो एक हाथ में आरक्षण का गोला है
दूसरे हाथ में मंडल आयोग का चोला है,
दोनों को हिला दिया,
देखो मिला दिया,
अब जादू का डंडा घुमाएगा,
और यही से बैठे बैठे देश के कोने कोने में हिंसा करवाएगा ,
देखो आरक्षण का ऐसा मंतर मारेगा
राजीव गोस्वामी जिन्दा भस्म हो जाएगा।

पॉच सौ से भी ज़्यादा उसका परिवार है,
नए-नए खेल उसके पास हैं,
खाप, तेलंगाना, बेलगॉव, काश्मीर,
अयोध्या, भाषा, प्रांत और नक्सलवाद,
नए नए खेलों की भरमार है,
देखों कृष्णा से रथ यात्रा करवाएगा
और एक ही मंतर से किसी की धरोहर गिराएगा,
देखो भाई से भाई को लड़वाएगा,
उसके नए खेल दन्तेवाड़ा में,
कोई भी ज़िन्दा पुलिसवाला एक क्षण में शहीद हो जाएगा।

सच अपने देश में मदारियों का झमेला है
हर पॉच साल में बदल जाता है, नया आता है,
डुग-डुगी की आवाज़ से जनता को नचाता है,
गरीबी दूर करने के  बेचता है ताबीज,
कितनी कसमें खाता, कितनी खिलाता है।

Saturday, July 3, 2010

पीढ़ी बिगड़ गई


देखो हमारा वंश कितना आगे बढ़ गया,
देखते ही देखते चाँद पर चढ़ गया,
और हम अब तक पेड़ों पर कुलाटी मार रहे हैं ?
चलो हम भी कुछ दिखाए ................!

एक नौजवान बंदर बोला,
यार हम क्या कर पाएंगे............?
दूसरे बूढ़े बंदर ने राज खोला.........,
तुम्हें नही मालूम,
हमने ही बनाया था सागर पर सेतू
और गये थे उस पार,
चलो अब पत्थर पर पत्थर रखकर एक सीढ़ी बनाएँ,
चाँद तक जाए, देखकर आए,
हमारा वंश क्या कर रहा है,

तीसरा एक बंदर भोला
बड़े बूढ़ों के बीच में बोला........,
चांद पर अपन बाद में जाएंगे,
चलो कुछ दिन देश चलाएंगे,

एक सीनियर बंदर बोला, नादान..........,
देश चलाना नही है आसान,
मैं देख कर आया हूँ,
देश चलाने वाला भवन महान,
अरे देश चलाना है तो,
पहले सारे बंदरों को ,
जात-पात, और धर्म-प्रांत के नाम पर लड़ना पड़ेगा,
बोलो सबसे पहले कौन मरेगा ?
भाई से कौन भाई लड़ेगा ?
राम के आदर्श को छोड़ना होगा,
झूठ, फरेब, बेईमानी का देना होगा साथ
धार्मिक स्थानों पर मचाना होगा उत्पात,
बोलो ! क्या ये सब कर पाओगे ?
तभी देश चला पाओगे,

सब बंदरों की बातें सुन,
एक बूढ़ी बंदरिया की आँखें भर आई,
उसने अपने कुनबे पर एक नज़र घुमाई
बोली, क्या हमारा वंश यही सब कर रहा है ?
अपने समाज की सोचना छोड़ आपस में कट मर रहा है!
वो घबराई सी बोली नहीं नहीं,
हमें चाँद पर हरगिज़ नहीं जाना है,
ना यह देश चलाना है,
बस अपने प्यारे जंगल में,
शांति, एकता, और भाइचारे से रहते जाना है।