Thursday, July 15, 2010
हम मदारियों के देश में रहते हैं.........
हाँ, हम मदारियों के देश में रहते हैं.
रोज मदारी आता है डुगडुगी बजाता है,
गरीबी दूर करने के ताबीज बेचता है,
कितनी कसमें खाता, कितनी खिलाता है।
खेल दिखाते-दिखाते जादू की छड़ी घुमाएगा,
देखो, आदमियों का पूरा भीड़ ताली बजायेगा
हाँ भाईजान, हाँ कदरदान, देखो श्रीमान,
उसको जादू वाली राजनीति का पूरा खेल आता है,
कभी किसी को गिराता है,
कभी किसी को मिलाता है,
मदारी हवा का रुख पहचानता है,
हर एक की नब्ज जानता है,
देखो जादू से हाथ के पंजे को घड़ी बनाएगा,
हल में से कमल खिलाएगा है,
कमल से हल का पहिया बनाएगा,
तीर कमान बना सबको डराएगा,
साइकिल को हाथी, हाथी को लालटेन,
वह कुछ भी बना सकता है।
वो नया खेल बना रहा है
किसान दशक ला रहा है,
लाल किले पर खड़ा होकर तमाशा दिखाएगा,
देखो एक हाथ में आरक्षण का गोला है
दूसरे हाथ में मंडल आयोग का चोला है,
दोनों को हिला दिया,
देखो मिला दिया,
अब जादू का डंडा घुमाएगा,
और यही से बैठे बैठे देश के कोने कोने में हिंसा करवाएगा ,
देखो आरक्षण का ऐसा मंतर मारेगा
राजीव गोस्वामी जिन्दा भस्म हो जाएगा।
पॉच सौ से भी ज़्यादा उसका परिवार है,
नए-नए खेल उसके पास हैं,
खाप, तेलंगाना, बेलगॉव, काश्मीर,
अयोध्या, भाषा, प्रांत और नक्सलवाद,
नए नए खेलों की भरमार है,
देखों कृष्णा से रथ यात्रा करवाएगा
और एक ही मंतर से किसी की धरोहर गिराएगा,
देखो भाई से भाई को लड़वाएगा,
उसके नए खेल दन्तेवाड़ा में,
कोई भी ज़िन्दा पुलिसवाला एक क्षण में शहीद हो जाएगा।
सच अपने देश में मदारियों का झमेला है
हर पॉच साल में बदल जाता है, नया आता है,
डुग-डुगी की आवाज़ से जनता को नचाता है,
गरीबी दूर करने के बेचता है ताबीज,
कितनी कसमें खाता, कितनी खिलाता है।
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बहुत ही सशक्त रचना, बधाई।
ReplyDeleteकविता के शिल्प पर ध्यान देने की बहुत जरूरत महसूस हो रही है। बाकी कविता बहुत दमदार है।
ReplyDeleteNice imagination .
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