Monday, January 10, 2022

 कितना अच्छा हो"।        १०/०१/२०२२.

हम फिर से बन मानुष काल में ही
जीवन जिए। गुफाओं में
पत्तो के वस्त्र, पत्थर के शस्त्र
अधनंगे,बड़े बड़े बाल
मूंह से टपकती लार।
हड्डियों की माला
किसी किसी के पास हो
मृग छाला।
बस बो ही अकेला  कबीले का सरदार हों।
ना कोई जात, ना कोई प्रांत
ना कोई हिंदू हो या मुसलमान
एक साथ करते हो शिकार
मिल बांट कर खाते हो मांस।
प्रकृति प्रदूषण मुक्त सांस।
ना चुनाव,ना झूठ,ना पाप
ना हत्या,ना बलात्कार।
 ना नफरत,ना दंगे,
मिलजुल कर रहते  सब जंगल में
भले चंगे।
बेकार में धीरे धीरे बने मनुष्य
ना  ये खुश, ना बो खुश,
हम छाल से ,रेशम और मलमल  तक
आ गए। हम सब  कितने घमंडी हो गए
अपना बन मानुष काल ही भूल गए।
अपने पुरखो की धूल, मिट्टी, छाल, 
गुफाओं की जीवन यात्रा के पड़ाव
मिल बांट खाते रहे मांस
अब हम सूट टाई , खादी।
हरे, भगवा,नीले, पीले, रंगो में  बंट गए
अपनी अपनी पहचान बना ली।
अब कबीलो में अनगिनत सरदार 
गुफाओं में जो रहते थे साथ साथ।
कोई पेड़ या कोई जानवर होता
हमारी  आस्था और विश्वास।
पर आज सब  हो गया बेकार ,
चमचमाते  पंडाल, देख बन मानुष
हो गया अंधा।
अपने अपने कबीले , अपने अपने रंग,
अपने अपने ,आदर्श,संस्कार,कर्म, चिन्ह,
सबका अपना अपना धंधा,
बह बन मानुष अब हो गया पूरा नंगा,


राकेश श्रीवास्तव पुणे

१०/०१/२०२२.














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